मोहर्रम क्या है? इसका इस्लाम में क्या मक़ाम है

मोहर्रम और करबला का वाक़िआ

मोहर्रम इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना है, जिसे बहुत ही मुक़द्दस और बा-अदब माना जाता है। यह महीना न सिर्फ़ नए साल की शुरुआत करता है बल्कि इस्लाम के सबसे दुखभरे और तारीखी वाक़िए — कर्बला की याद भी दिलाता है।

“मोहर्रम” लफ़्ज़ का मतलब है — जिसे हराम कर दिया गया हो, यानी ऐसा महीना जिसमें जंग और ख़ून-रेज़ी से मना किया गया हो। इस्लाम से पहले भी अरब समाज में मोहर्रम को एक पाक और परहेज़गार महीना माना जाता था, और इस्लाम के आने के बाद इसे और भी ज़्यादा मुक़द्दस मान लिया गया।

क़ुरआन शरीफ़ में भी (सूरह अल-तौबा, आयत 36) ज़िक्र आता है कि साल के चार महीने हराम यानी मुक़द्दस हैं, जिनमें मोहर्रम भी शामिल है।


इस्लामी कैलेंडर में मोहर्रम की अहमियत

इस्लामी कैलेंडर चांद की हरकतों पर आधारित होता है, और मोहर्रम उसका पहला महीना है। मोहर्रम को “शहरुल्लाह अल-मोहर्रम” कहा जाता है यानी “अल्लाह का महीना”। यह नाम इसे और भी अज़्मत वाला बना देता है।

रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फरमाया:

“सबसे बेहतरीन रोज़े अल्लाह के महीने यानी मोहर्रम में हैं, रमज़ान के बाद।”
(हदीस: सहीह मुस्लिम)

मगर मोहर्रम की सबसे बड़ी पहचान बनी 10वीं मोहर्रम (यौम-ए-आशूरा), जिस दिन इमाम हुसैन (र.अ) और उनके साथियों को शहीद कर दिया गया।


करबला का वाक़िआ क्या था? पूरी कहानी

सन 680 ईस्वी (61 हिजरी) की बात है। इस्लामी दुनिया में उमय्यद खिलाफ़त का दौर था और यज़ीद नामक शासक ने जबरन खुद को खलीफ़ा घोषित कर दिया। मुसलमानों की बड़ी तादाद ने उसे नापसंद किया क्योंकि उसका किरदार इस्लामी उसूलों के खिलाफ़ था।

इमाम हुसैन (र.अ), जो रसूलुल्लाह (ﷺ) के नवासे थे, ने यज़ीद की बैअत (वफ़ादारी) से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा:

“मैं ज़ुल्म के सामने सर झुकाने नहीं आया, बल्कि हक़ को क़ायम करने और बुराई के खिलाफ आवाज़ उठाने आया हूँ।”

कूफ़ा के लोगों ने हुसैन (र.अ) को मदद की दावत दी, लेकिन जब वे अपने परिवार और कुछ वफादार साथियों के साथ वहां पहुंचे, तो रास्ते में यज़ीद की फौज ने उन्हें कर्बला (आज का इराक़) के मैदान में रोक लिया।

10वीं मोहर्रम को, यानी यौम-ए-आशूरा को, 72 लोगों के साथ इमाम हुसैन (र.अ) ने यज़ीद की बड़ी फौज का सामना किया। तीन दिन की प्यास और भूख के बावजूद वो हक़ के लिए डटे रहे और शहादत को गले लगाया। यहां सिर्फ जंग नहीं हुई थी — यहां सब्र, हिम्मत, और कुर्बानी की मिसाल क़ायम हुई थी।


इमाम हुसैन कौन थे? उनका किरदार और पैग़म्बर से रिश्ता

इमाम हुसैन इब्न अली (र.अ), हज़रत अली (र.अ) और बीबी फ़ातिमा (र.अ) के बेटे थे। वो रसूलुल्लाह (ﷺ) के प्यारे नवासे थे और उनका बचपन नबी-ए-अकरम की गोद में बीता।

रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फरमाया:

“हुसैन मुझसे है और मैं हुसैन से हूँ।”
(हदीस: तिर्मिज़ी)

हुसैन (र.अ) का किरदार ईमानदारी, इन्साफ़, और सब्र की मिसाल था। उन्होंने हक़ के लिए जान दे दी मगर ज़ालिम की बैअत नहीं की। उनका यह क़दम इस बात की तस्दीक़ करता है कि इस्लाम में ज़ालिम का साथ देना गुनाह है, चाहे कीमत जान ही क्यों न हो।


10वीं मोहर्रम (यौम-ए-आशूरा) का मतलब

आशूरा यानी मोहर्रम की दसवीं तारीख़, इस्लामिक तारीख़ का सबसे अहम् दिन है। इस दिन सिर्फ कर्बला नहीं, बल्कि कई दूसरे अहम वाक़िए भी हुए हैं:

  • हज़रत मूसा (अ.स) और उनकी क़ौम को फिरऔन से निजात मिली।
  • हज़रत नूह (अ.स) की कश्ती जूदी पहाड़ पर ठहरी।

मगर मुसलमानों के दिलों में यह दिन सबसे ज़्यादा कर्बला की याद की वजह से अज़ीज़ है। यह दिन हमें बताता है कि हक़ की राह हमेशा आसान नहीं होती, लेकिन उस पर चलना ही सच्चा इस्लाम है।


शिया और सुन्नी मुसलमान मोहर्रम को कैसे मनाते हैं?

शिया मुस्लिम:

शिया समुदाय के लिए मोहर्रम एक अज़ादारी (शोक) का महीना होता है। 1 मोहर्रम से लेकर 10 मोहर्रम तक रोज़ मजलिसें होती हैं, जिनमें इमाम हुसैन (र.अ) की शहादत का ज़िक्र होता है। लोग मातम, नौहा, और सीनाज़नी के ज़रिए ग़म का इज़हार करते हैं।

सुन्नी मुस्लिम:

सुन्नी मुसलमान इस महीने की फज़ीलत को मानते हैं और ख़ासकर 9वीं और 10वीं मोहर्रम को रोज़ा रखते हैं। हदीस के मुताबिक़, रसूलुल्लाह (ﷺ) ने आशूरा के रोज़े को गुनाहों की माफ़ी का ज़रिया बताया।

“आशूरा के रोज़े से पिछले साल के गुनाह माफ़ हो जाते हैं.”
(हदीस: सहीह मुस्लिम)


ताज़िया, मातम और जुलूस की परंपरा

मोहर्रम के दौरान कई जगहों पर ताज़िया निकाला जाता है — यह एक प्रतीकात्मक मक़बरा होता है जो इमाम हुसैन (र.अ) की याद में बनाया जाता है। ताज़िए की सवारी, अलम, और जुलूस में शामिल होकर लोग कर्बला के ग़म को ताज़ा करते हैं।

मातम करना यानी छाती पीटना, आंसू बहाना — यह सब अहले-बैत से मोहब्बत का इज़हार है। यह परंपराएं सदियों से चली आ रही हैं और खास तौर पर शिया समाज में गहराई से निभाई जाती हैं।


मोहर्रम से जुड़े अफ़वाहें और सच्चाई

कई जगहों पर मोहर्रम को शादी-ब्याह न करने का महीना माना जाता है। हालांकि इस्लामी नज़रिए से ऐसा कोई मनाही नहीं है। मोहर्रम शोक का महीना है, लेकिन इसमें हर चीज़ हराम है — ऐसा कहना ग़लत है।

दूसरी अफ़वाह यह भी होती है कि मोहर्रम में नई चीज़ें नहीं खरीदनी चाहिएं — जबकि इस्लाम में ऐसी कोई मनाही नहीं है। हां, इमाम हुसैन (र.अ) के ग़म में खुशी मनाना नाफ़रमानी मानी जा सकती है, लेकिन ज़िंदगी की ज़रूरी चीज़ें करना मना नहीं है।


मोहर्रम हमें क्या सीख देता है?

करबला का वाक़िया सिर्फ एक जंग नहीं थी — वो एक नैतिक क्रांति थी। इसने हमें सिखाया:

  • हक़ के लिए खड़े रहो, चाहे अकेले ही क्यों न रहना पड़े।
  • ज़ालिम का साथ मत दो, चाहे वो तुम्हारा रिश्तेदार ही क्यों न हो।
  • सब्र और सच्चाई की राह मुश्किल होती है, लेकिन वही राह अल्लाह को पसंद है।
  • मजहब का मतलब है इंसाफ़, करुणा और बलिदान — न कि ताक़त की भूख।

इमाम हुसैन (र.अ) का पैग़ाम आज भी इंसाफ़ की लड़ाई लड़ने वालों के लिए रोशनी का चिराग़ है।

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FAQs:

1. मोहर्रम किसे कहते हैं और यह कब मनाया जाता है?

जवाब:

मोहर्रम इस्लामी चांद पर आधारित कैलेंडर का पहला महीना है, जिसे बहुत मुक़द्दस माना जाता है। यह खासतौर पर इमाम हुसैन (र.अ) और उनके साथियों की कर्बला में शहादत की याद में मनाया जाता है। हर साल यह महीना हिजरी कैलेंडर के अनुसार अलग तारीख़ पर आता है।

2. कर्बला का वाक़िआ क्या है और उसका इस्लाम में क्या महत्व है?

जवाब:

कर्बला का वाक़िआ सन 680 ईस्वी में हुआ जब इमाम हुसैन (र.अ) ने ज़ालिम हुक्मरान यज़ीद की बैअत से इनकार कर दिया और हक़ की खातिर अपनी जान क़ुर्बान कर दी। यह इस्लामी इतिहास का सबसे बड़ा बलिदान माना जाता है और हिम्मत, सब्र और इंसाफ़ की मिसाल है।

3. मोहर्रम के दौरान मुसलमान क्या करते हैं?

जवाब:

मोहर्रम के दौरान शिया मुसलमान मजलिस, मातम, और जुलूस निकालते हैं, जबकि सुन्नी मुसलमान 9वीं और 10वीं मोहर्रम को रोज़ा रखते हैं और इबादत करते हैं। सभी मुस्लिम समुदाय इस महीने को इज्ज़त और अदब से मनाते हैं।

4. क्या मोहर्रम में नई चीज़ें खरीदना या शादी करना मना है?

जवाब:

इस्लाम में ऐसी कोई मनाही नहीं है। मोहर्रम को ग़म का महीना माना जाता है, इसलिए लोग खुशी के कामों से परहेज़ करते हैं। लेकिन शरई तौर पर शादी या कोई नई चीज़ खरीदने की मनाही नहीं है — यह सामाजिक परंपराओं की वजह से होता है, न कि क़ुरआन या हदीस की।

5. इमाम हुसैन (र.अ) ने यज़ीद की बैअत क्यों नहीं की?

जवाब:

इमाम हुसैन (र.अ) ने यज़ीद को एक ज़ालिम, ग़ैर-शरीअतपसंद और अल्लाह के उसूलों के खिलाफ़ हाकिम माना। उन्होंने कहा कि वह कभी भी ऐसे शख्स की वफ़ादारी नहीं कर सकते जो इस्लाम की रूह को कुचल रहा हो। उनकी शहादत हक़ और इंसाफ़ की सबसे ऊंची मिसाल है।